Monday, February 5, 2007

इतने ऊँचे उठो


इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है॥

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥


- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

1 comment:

  1. हिन्दी चिट्ठा (Blog) जगत में आपका स्वागत है दर्शन भाई!! बहुत सुन्दर कविता से शुरुआत की आपने।
    आप इस चिट्ठे पर अगर हिन्दी में ही अपनी रचनायें प्रकाशीत करना चाहते हैं तो नारद को यहाँ सूचित करें ताकि आपकी रचनायें हिन्दी के अन्य पाठक भी पढ़ सकें।

    ॥दस्तक॥

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